Saturday, June 13, 2009

मैं एक कतरा कागज का

मैं एक कतरा कागज का

मैं एक कतरा कागज का
कभी सवाल होता हूँ किसी का
कभी जवाब बन जाता हूँ
कभी ख़त रहता हूँ तो
कभी खिताब बन जाता हूँ

हाँ मैं एक कतरा कागज का
जिस पर रोटी है कलम
गम में सर रख कर
कभी खिलते है खुसी के रंग
इस पर कलम बैंकर
लेकिन मैं केवल एक कतरा कागज का

लेकिन मैं केवल एक कतरा कागज का
कभी बारिश के बूंदों के बिच
कागज की कस्ती बन इठलाता हूँ
कभी सख्त मिटटी में मैं

तृष्णा बैंकर दफ़न हो जाता हूँ

मैं हर बार एक कतरा कागज का
मैं buजाता हूँ अपनों में कई बार
बदलता हूँ रूप गैरों के लिए कई बार
सोचता हूँ अपने अस्तित्व को
फ़िर मौन हो जाता हूँ हर बार

मैं सिर्फ़ एक कतरा कागज का
जो पहुचता है रद्दी की टोकरी में
हर बार इस्तेमाल करने के बाद
देखता हूँ अपने ही जैसे कयिओं को
कारखाने की भीड़ में पहुचने के बाद
और जन्म लेता हूँ फ़िर एक बार
अपने अस्तित्वा को पहचानने के लिए
और अब भी हूँ मैं वही
एक ‘खामोश’ कतरा कागज का

8 comments:

  1. खामोश जी की खामोशी तो काफ़ी कुछ कहना चाह रही है...

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  2. qatra kagaz ka.....umda kavita....

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  3. हिंदी ब्लॉग की दुनिया में आपका स्वागत है....

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  4. स्वागत है.शुभकामनायें.

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  5. स्वागत है.शुभकामनायें.

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  6. आप की रचना प्रशंसा के योग्य है . आशा है आप अपने विचारो से हिंदी जगत को बहुत आगे ले जायंगे
    लिखते रहिये
    चिटठा जगत मे आप का स्वागत है
    गार्गी

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  7. Alfaaz bade sundar hain...aur khayalat bhee...mujhe jo kaha jata hai, wahee aapko keh rahee hun..talaffuz kaheen, kaheen sudhar chahte hain...

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  8. बदलता हूँ रूप गैरों के लिए कई बार
    सोचता हूँ अपने अस्तित्व को
    फ़िर मौन हो जाता हूँ हर बार

    bahut hi achha kaha hai aapne.

    -Sheena
    http://sheena-life-through-my-eyes.blogspot.com
    http://hasya-cum-vayang.blogspot.com/
    http://mind-bulb.blogspot.com/

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