Thursday, December 24, 2009

दुल्हन



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वो हसती है, मुस्कराती है,


वो सजाती है, सवरती है,


खुद पर इतराती है,


और फिर खुश हो जाती है,


लोग आते है उसे देखने


देखते है उसके रंग रूप को,


आकार को , यौवन को,


जाती को उसके ओहदे को,


वो नहीं देखते उसके,


कोमल भावनाओं को,


चहरे की ख़ुशी को,


आँखों के सपनो को,


मन की सुन्दरता को,


सभी इसी तरह आते है,


वो भी इसी तरह आती है,


लोग बार बार देखकर जाते है,


वो बार बार टूट जाती है,


पर हर बार से ज्यादा टूटती है,


लोग लगते है बोलियाँ,


उसके अरमानो की, खुशियों की,


माँ के आशुओं की,


बाप के पगड़ी की ,


और अंत में आता है एक सौदागर,


ले जाने के लिए उसे,


और वो छोड़ जाती है सब कुछ ,


यहाँ तक की अपना नाम भी,


तब जाकर शायद ऐसे ही,


हर लड़की दुल्हन बनती है,


Friday, December 18, 2009

रिश्तों का चलन




जमीं पर पड़ा,


छिछला घड़ा,


घड़े से रिसता पानी,


पानी से नम होती जमीं,


जमीं में दबा दाने का अंश,


नमी से अंकुरित होता दाना,


दाने से निकलता नन्हा पौधा,


पौधे से बनता विशाल वृक्ष,


और पास में पड़ा वाही रिसता घड़ा,


वृक्ष से निकलते फुल,


फूलों से निकलता फल,


फलों से बोझिल डालियाँ,


डालियों से छूटकर कोई फल,


आकर घड़े पर पड़ा,


और टूट गया घड़ा,


अब न वह अंकुरित दाना,


और अब न वह रिसता घड़ा,


शायद यही ही रिश्तों का चलन,


सोचता ही यही वह "खामोश" टूटता घड़ा,

ये शहर है कुछ ऐसा



ये शहर है, यहाँ सबकुछ है

पर कुछ भी ऐसा नहीं अपना कहने को,

हाँ ये शहर है कुछ ऐसा,

यहाँ जिंदगियां बहोत है

पर जीने को कुछ भी नहीं

हाँ ये शहर है कुछ ऐसा,

हर एक के पास सब कुछ है,

पर देने को कुछ भी नहीं,

हाँ ये शहर है कुछ ऐसा,

पिने को बहोत कुछ है,

पर दो घूंट पानी नहीं,

हाँ ये शहर है कुछ ऐसा,

खाने को बहोत कुछ है,

पर घर कि रोटी साग नहीं,

हाँ ये शहर है कुछ ऐसा,

यहाँ है बड़ी बड़ी इमारते,

पर ले सके कोई सुकून कि साँस

ऐसी कोई ठंडी दरख्त नहीं,

हाँ ये शहर है कुछ ऐसा,